Sukhanvar
मुसाफिर दरिया का रंग देखता रहा दिनभर इधर
उफान-इ-कश्ती-इ-माझी गाफिल हो बह गया इधर |
पढने लगा था बहुत इल्म से जबीं-इ-लकीरों को,
वो इश्क-इ-समंदर में डूब मोती बन गया इधर |
मैं अपने घर में खुदा को पूजता रहा मगर,
दुनिया वालों की नज़र में कातिल बन गया उधर |
तेरी तालाश में ही गया था ,क्या खबर,
साकी भी न मिला और पैमाना भी खो गया उधर |
उन्हें ये डर , के मैं गर्दिश-इ-दहर में जाऊँगा किधर ?
जहाँ कदम रखता गया , रास्ता बनता गया उधर |
लज्ज़त-इ-फ़साना-मोहोबत्त में वक़्त गुज़र गया कुछ
वो खंज़र लिए इंतज़ार करता रहा उधर |
उनके नक्श-इ-हुस्न के सामने पिया था ज़हर,
उम्र दो दफा और बढ़ गई शायद उधर |
ना चश्म-इ-नीर, ना दर्द-इ-दिल किया बयां जिधर,
दीवार पैर नाम उनका लिख चुपचाप आ गए उधर |
दो आखार लिखकर ही जला दिया वो पन्ना अमूमन,
कहीं लोग उम्दा सुखनवर ना समझने लगें "प्रेम" तुझे उधर |
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गाफिल=senseless
इल्म=knowledge
जबीं=forehead
गर्दिश-इ-दहर=world full of difficulties
फ़साना=story
नक्श-इ-हुस्न=the portrait of beauty
चश्म-इ-नीर=tears flowing out of eyes
सुखनवर=poet
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Wednesday, February 9, 2011
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