Wednesday, March 28, 2012

लगता है डर अगर......



लगता है डर गर आईने से इतना तो मुझे मिटा दो तो ज़रा,
खन्ज्र्र ना सही हाथों में, नकाब ही हटा दो तो ज़रा !!

तेरे इंतज़ार में दुआ माँगने को नहीं उठे हैं हाथ बरसों से,
खुदा के वास्ते कभी अपनी नज़र ही उठा दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में......!!

आपके इशरत-ए-इस्वा-करी* पर हँसे ना कोई तो और क्या ?
लाखों कस्में याद ना सही, के इकक वादा ही निभा दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में.......!!

समाँ यों दुशवार* नहीं रहता सदा गुलज़ार में, ए अज़ीम*-ए-चमन,
बेहिस्त*-ए-गुलिस्ताँ में आ जाएगी बहार, तुम शर्मा दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में नकाब ही हटा दो तो ज़रा !!

तबीयत खरी हो चली थी उसके बगैर इकक अरसे से,
बस्ती में आए हैं वो आज, के चेहरे पेर नकाब गिरा दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में.......!!

उन्हें ये डर के भरी बzम में ये आँखें झलक़ ना उठें कहीं,
मैं कब से पत्थर बना बैठा हूँ, आदमी बना दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में.......!!

गिरा था मयखाने में तो बेशुमार हाथ बढ़े आए थे उठाने को,
अब तो शराब का भी असर नहीं साक़ी तुम ही गिरा दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में.......!!

तेरे हुनर के जलवे सुने तो हैं हमने भी बहुत के आज
समंदर में डूब गया हूँ, के मोती बना दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में.......!!

नहीं चाहता कोई खिदमत "प्रेम" इस जहाँ-ए-बेदाद से,
तुम मेरे नाम से मेरा तखलुस्स ही मिटा दो तो ज़रा !!
खन्ज्र्र ना सही हाथों में.......!!
लगता है डर गर आईने से इतना तो मुझे मिटा दो तो ज़रा.....

<इशरत-ए-इस्वा-करी=खुद को चालक समझने से मिलने वाली खुशी>
<दुशवार=मुश्किल> <अज़ीम=रक्षक> <बेहिस्त=स्वर्ग>

Thursday, February 9, 2012

मियाँ समझा करो ....!!



मयखाने जाकर वाइज़ और साकी में यों ना उलझ जाया करो
आईना सामने रखकर खुदा और खुद में फ़र्क़ समझा करो !!

यों नहीं के जबाब नहीं तुम्हारे सवालों का हमारे पास,
मैं चुप इसलिए रहता हूँ अक्सर के तुम समझा करो !!

सुना है फकीरों के काफिले में शामिल हो गया है इकक मुसाफिर,
तुम हुनर की पहचान के लिए पहले सादगी को समझा करो !!

हर एक को दोस्त कह देने में बुराई नहीं कोई,
मगर तुम दोस्त और महबूब में फ़र्क़ समझा करो !!

बहुत लाज़िम है आशिक़ी में बेवफ़ाइयों के तोफे,
मगर किसी का दिल दुखाने से पहले दिल्लगी समझा करो !!

रिज़्क-ए-शोहरत के मोहताज़ होंगे वो नामगार लोग,
तुम कभी कबार गुमनाम फकीरों की जूस्तजू समझा करो !!

मैं सदिओं से गर्दन झुकाए खड़ा रहा हूँ तेरे मंदिर में,
हर एक दुआ हाथ फैलाकर नहीं माँगी जाती , समझा करो !!

यों सर-ए-आम महफ़िल में सवाल करके ज़लील ना करना,
अब जवां हो चले हो तुम, समझा करो !!

शिकायत करना तो मोहोबत की तोहीन होती है ,
मियाँ, इश्क़ में खामोशी की एहमियत समझा करो !!

हर शाम आशियाँ में फाफिल हो सो जाने से कहाँ मिलता है सुकून,
किसी बेघर नाशाद को सीने से लगा उसका दर्द समझा करो !!

ऐसा हुनर नहीं "प्रेम" तुझमें के आला शायरी करे तू,
उसने कहा था इकक बार, हमारी ज़ुबानी लिखा करो !!
आईना सामने रखकर खुदा और खुद में फ़र्क़ समझा करो !!