Thursday, February 9, 2012

मियाँ समझा करो ....!!



मयखाने जाकर वाइज़ और साकी में यों ना उलझ जाया करो
आईना सामने रखकर खुदा और खुद में फ़र्क़ समझा करो !!

यों नहीं के जबाब नहीं तुम्हारे सवालों का हमारे पास,
मैं चुप इसलिए रहता हूँ अक्सर के तुम समझा करो !!

सुना है फकीरों के काफिले में शामिल हो गया है इकक मुसाफिर,
तुम हुनर की पहचान के लिए पहले सादगी को समझा करो !!

हर एक को दोस्त कह देने में बुराई नहीं कोई,
मगर तुम दोस्त और महबूब में फ़र्क़ समझा करो !!

बहुत लाज़िम है आशिक़ी में बेवफ़ाइयों के तोफे,
मगर किसी का दिल दुखाने से पहले दिल्लगी समझा करो !!

रिज़्क-ए-शोहरत के मोहताज़ होंगे वो नामगार लोग,
तुम कभी कबार गुमनाम फकीरों की जूस्तजू समझा करो !!

मैं सदिओं से गर्दन झुकाए खड़ा रहा हूँ तेरे मंदिर में,
हर एक दुआ हाथ फैलाकर नहीं माँगी जाती , समझा करो !!

यों सर-ए-आम महफ़िल में सवाल करके ज़लील ना करना,
अब जवां हो चले हो तुम, समझा करो !!

शिकायत करना तो मोहोबत की तोहीन होती है ,
मियाँ, इश्क़ में खामोशी की एहमियत समझा करो !!

हर शाम आशियाँ में फाफिल हो सो जाने से कहाँ मिलता है सुकून,
किसी बेघर नाशाद को सीने से लगा उसका दर्द समझा करो !!

ऐसा हुनर नहीं "प्रेम" तुझमें के आला शायरी करे तू,
उसने कहा था इकक बार, हमारी ज़ुबानी लिखा करो !!
आईना सामने रखकर खुदा और खुद में फ़र्क़ समझा करो !!