सवेरा हो आप ही से, शाम ढले तो आप ही से,
ये नूर, ये मयकशी; ये शब्नम, ये शराब, आप ही से !!
इशरत-ए-मोहोबत तो हर दिन मिली मगर,
आँखें मिली आँखों से, आप ही से..!!
मैं भटकता रहा हर दम दो लफ़्ज़ों की तालाश में,
गज़ल बनी तो आप ही से...!!
नहीं छुपती छुपाए ये दास्ताँ किसी से,
कहूँ मगर कैसे के हो गई है मोहोबत आप ही से..!!
ना क़ुरान पढ़ी ना सजदा, ना नमाज़ की अदा कभी,
मंदिर मस्जिद काबा सब आप ही से..!!
नादां थे हम जो फूल सितारों से सज़ा रहे थे,
रौनक आई घर में, आप ही से..!!
उम्र भर दर बदर ढोकरें खाता रहा हूँ मैं,
मेरी ज़िंदगी का ठिकाना, आप ही से..!!
सादगी देखिए तो ज़रा हमारी,
आपकी शिकायत करते हैं आप ही से (सुमित माफी चाहूँगा !!)
मंज़र दिखे तो तसल्ली हो "प्रेम" तुझे,
क्या खबर, सुकून मिले तो आप ही से !!
Monday, December 26, 2011
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